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Showing posts from August, 2013

हम सोचते हैं (भाग 3) – माफियानामा और माफीनामा

हम लिखें इससे पहले ही हम स्पष्ट कर दें कि हम ‘ सेकुलर ’ यानि कि धर्मनिरपेक्ष हैं। यह स्पष्ट करना निम्नलिखित कारणों से जरूरी हो जाता है: पहला कि यह सत्य है – हमारा मानना है कि इंसान को उसकी सोच एवं आचरण से बाँटना चाहिए न कि उसके भगवान या जन्म के अनुसार।   और दूसरा कि आज के माहौल का कोई ठीक नही है – पता नहीं कि कौन आकर यह आरोप लगा दे कि आपका यह लेख तो भई समाज में सांप्रदायिक अलगाव पैदा करने की क्षमता रखता है। हमें जेल भेज दिया जाए या फिर हमारे घर पर लोग पत्थर फेंकें इससे पहले ही अग्रसक्रिय होते हुए हमने स्पष्टीकरण दे दिया। अब स्पष्टीकरण दे ही दिया है तो हम लेख के साथ आगे बढ़ते हैं। हमें पता नहीं कि ‘ माफियानामा ’ और ‘ माफीनामा ’ शब्द वाकई में हैं भी या नहीं  - हमें बस यह पता है कि ‘ नामा ’ लगने से शब्द में वजन आ जाता है। सच पूछिए तो शब्दों के मामले में हमारे हाथ बचपन से ही तंग रहें हैं। यही कारण है कि कुछ दिन पहले जब ‘ सैंड माफिया ’ सुना तो चक्करघिरनी खा गए – ड्रग माफिया सुना था ; रियल स्टेट माफिया सुना था ; एजूकेशन माफिया सुना थ ; पर रेत जैसी तुच्ची चीज में...

हम सोचते हैं (भाग 2) – आजादी: चेन्नई एक्सप्रेस वे

हम सिनेमा कला के वर्षो से प्रशंसक रहे हैं। जाहिर सी बात हैं कि इस विषय पर हमारी अपनी राय भी है जिसे हम कभी व्यक्त करते हैं और कभी अपने तक ही सीमित रखते हैं। रोहित शेट्टी की फिल्मों के बारे में हमारा मानना है कि उन्हे गंभीरता से लेने की कोई भी आवश्यक्ता नही है। सिनेमा के शौकिन होने के कारण हम यदा-कदा जब उनकी फिल्में देखने जाते भी हैं तो दिलोदिमाग ताक पर रख कर – पता नहीं कब कोई सीन खुराफात कर हमारे सिनेमाबोध पर बुरा असर छोड़ जाए। जब चेन्नई एक्सप्रेस आई तो हम उसे भी देखने गए – दिमाग तो घर छोड़ गए पर दिल को साथ ले जाना पड़ा। आप पूछ सकते हैं – ऐसा अपवाद क्यों ? हमें जानने वाले इसका लिखित श्रेय शाहरुख खान को दे देंगे जिनके हम बचपन से ही फैन रहें हैं। और यह गलत भी नहीं होगा – भई हमने चेन्नई एक्सप्रेस देखी भी तो दो बार है। अब आपको पता है कि फिल्म के रिकॉर्डतोड़ू बिजनेस में हमारा कितना महत्वपूर्ण योगदान है। जब तक हम यह बेफिजूल की बातें कर रहें हैं , कहीं आप इस बात से अधीर तो नहीं हो रहें कि यह ऐन मुद्दे पर कब आएगा ? धीरज रखिए – हमनें फितरत ही ऐसी पाई हैं कि किसी भी मुद्दे पर सीधे नहीं पहु...

हम सोचते हैं (भाग 1) - ‘ये तेरा घर, ये मेरा घर’

हम सोच ही रहें थे कि ऐसा अब तक क्यों नहीं हुआ कि बयान आया – ‘ नए तेलेंगाना राज्य में आंध्रा मूल के राज्य कर्मचारियों की जरूरत नहीं हैं। ’ तेलेंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष का यह बयान मूलत: तेलेंगाना निवासियों के हित में बोला गया – ‘ आंध्रा मूल ’ के कर्मचारी नहीं रहेंगे तो उनकी जगह तेलेंगाना के लोग लेंगे। बेरोजगारी घटेगी और तेलेंगाना ‘ आंध्रा कोलोनियलिस्म ’ से आजाद होगा। सच पूछिए तो हमें इस तरह की सोच बड़ी ही अच्छी लगती है। बेरोजगारी और गरीबी हटाने के लिए ही तो नए राज्य का गठन हुआ है – और बेरोजगारी तब ही घट सकती है जब सरकारी नौकरियाँ जेब में हो। इंडस्ट्रीज तो जब आयेंगी तब आयेंगी – हो सकता है नहीं भी आयें। तब तक गरीब और बेरोजगार को कोई झुनझुना तो देना होगा न। बहुत सारे आंध्रा मूल के कर्मचारियों ने ‘ नए तेलेंगाना ’ के विकास के लिए बहुत कुछ किया होगा ; अपनी भावनाएँ उस भौगोलिक खंड के साथ जोड़ी होंगी ; वहाँ निवेश किया होगा। उनको तिरस्कृत करके निकालने से नए प्रदेश के स्वाभिमान का उदय होगा। अभी हम इन सारे पक्षों के बारे में ठीक से सोच भी ना पाए थे कि महाराष्ट्र से नया बयान आया – ...