हम लिखें इससे पहले
ही हम स्पष्ट कर दें कि हम ‘सेकुलर’ यानि कि धर्मनिरपेक्ष हैं। यह स्पष्ट करना निम्नलिखित
कारणों से जरूरी हो जाता है:
- पहला कि यह सत्य है – हमारा मानना है कि इंसान को उसकी सोच एवं आचरण से बाँटना चाहिए न कि उसके भगवान या जन्म के अनुसार।
- और दूसरा कि आज के माहौल का कोई ठीक नही है – पता नहीं कि कौन आकर यह आरोप लगा दे कि आपका यह लेख तो भई समाज में सांप्रदायिक अलगाव पैदा करने की क्षमता रखता है। हमें जेल भेज दिया जाए या फिर हमारे घर पर लोग पत्थर फेंकें इससे पहले ही अग्रसक्रिय होते हुए हमने स्पष्टीकरण दे दिया।
अब स्पष्टीकरण दे ही
दिया है तो हम लेख के साथ आगे बढ़ते हैं। हमें पता नहीं कि ‘माफियानामा’ और ‘माफीनामा’ शब्द वाकई में हैं भी या
नहीं - हमें बस यह पता है कि ‘नामा’ लगने से शब्द में वजन आ जाता है। सच पूछिए तो शब्दों के
मामले में हमारे हाथ बचपन से ही तंग रहें हैं। यही कारण है कि कुछ दिन पहले जब ‘सैंड माफिया’ सुना तो चक्करघिरनी खा गए – ड्रग माफिया सुना था; रियल स्टेट माफिया सुना था; एजूकेशन माफिया सुना थ; पर रेत जैसी तुच्ची चीज
में माफिया का क्या काम? और अगर हो भी तो इतना बलशाली कि एक आई. ए. एस अधिकारी की
मिनटों में छुट्टी करा दें? ना जी ना। सच तो वही दिख रहा है जो यू.पी सरकार ने बताया
है - आई. ए. एस अधिकारी की हरकतों से रमजान के पावन महीने में फालतू में
सांप्रदायिक तनाव आ सकता था; जानें जा सकती थी। लॉ एंड ऑर्डर की जिम्मेदारी प्रशासन की
है – अगर वही अलगाव फैलाएगा तो लॉ एंड ऑर्डर का क्या होगा? और फिर सैंड माफिया तो मिथक है - रेत
जैसी तुच्ची चीज से माफिया क्या कमा लेगा? बात भी सही है। माफिया तो वहीं होगा जहाँ
मुनाफा है। रेत में क्या मुनाफा?
आखिरी एक दो दशक में
भारत में निर्माण (भवन;पुल;
रास्ते इत्यादि) में काफी तेजी आई है। आनी
भी चाहिए – भई हम आगे बढ़ रहें हैं; देश का निर्माण हो रहा है तो इन सारी चीजों का बनना तो
लाजिमी है। अब जरा दिमाग पर जोर डालिए और बताईए कि निर्माण-कार्य में किन किन चीजों
की आवश्यकता होती हैं? कुछ याद आया – ईंट, सरिया, सिमेंट, कंकड़ और... और... जी हाँ, रेत। अब जहाँ निर्माण होगा, वहाँ रेत की जरूरत तो
पड़ेगी ही। और जब इतना निर्माण हो रहा है तो रेत
के धंधे में जो है उसकी तो, वह क्या कहते हैं उसको, थई-थई है। इस नजरिए से जब हमनें देखा तो हमें
लगा कि रेत के धंधे में माफिया का होना तो काफी प्रासंगिक है।
‘रेत’ एक बहुत ही छोटा पर जटिल विषय है। जरा सोचिए कि रेत आएगा कहाँ से – आप
सोच सकते हैं कि हमारे पास तो पूरा रेगिस्तान पड़ा है, ले जाओ जितना लेना है। पर सच्चाई
यह है कि रेगिस्तान की रेत निर्माण के लिए उपयुक्त नही है - चलो अच्छा ही है, नही तो शायद हमारे थार और
मिस्र (इजिप्ट) के विशाल रेगिस्तानों को देखने की तमन्ना बस दिल में ही रह जाती। अब
बच जाते हैं दो विकल्प – या तो नदियों, तालाबों या समुद्रों के तट और तल से रेत का खनन (माईनिंग) करो या फिर पत्थरों को तोड़ कर उनका चूरा
बनाओ। इन दोनों विकल्पों का पर्यावरण और प्रकृति पर प्रतिकूल प्रभाव होता दिखता है:
- रेत न सिर्फ निर्माणों को मजबूती देता है बल्कि जलस्रोतों के कटाव को भी रोकता है
- रेत स्पंज की तरह काम करता है – वह पानी को सोख कर रखता है और भूमि जलस्तर को बनाए रखने में मुख्य भूमिका निभाता है
- पत्थरों के लिए पहाड़ों और चट्टानी इलाकों का खनन करना होगा – उत्तराखंड में हाल ही में आए प्राकृतिक आपदा के बाद हमें इसके बारे में ज्यादा लिखने की आवश्यकता नहीं है
यह तो पता चल गया कि
रेत के इस्तेमाल से पर्यावरण को नुकसान है और इसके उपयोग की निगरानी करना जरूरी है
– और यहीं से शुरू होता है ‘अथ श्री माफिया
प्रसंग’। जहाँ सब कुछ आसानी से
उपलब्ध हो वहाँ माफिया क्यों आएगा। माफिया तो वहीं होगा जहाँ किल्लत है या किल्लत पैदा
की जा सकती है – क्योंकि मुनाफा या फिर यह कह लें कि ‘रिटर्न
औन इनवेस्टमेंट’ ज्यादा है। रेत हमारे जीवन के अनिवार्य अंग बन
गया है – इसके बिना हम अधूरे हैं। और यही तथ्य माफिया को इसकी ओर खींचता है।
रेत खनन की निगरानी काफी मुश्किल है क्योंकि यह कहीं भी और कभी भी हो सकती है। कानून है पर
उसमें भी काफी खामियाँ हैं। और यह दो पहलू भी अगर बचाव न कर पाए तो बचाव करती है वर्षो
से चली आ रही प्रथा – संरक्षण (बहुत लोग इसे माफिया- पॉलिटिशियन-ब्यूरोक्रेसी नेक्सस
भी कहते हैं)। यह ‘नेक्सस’ या फिर गठबंधन बहुत ही शक्तिशाली है। यही कारण है कि आई.ए.एस
अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल ‘बस 41 मिनटों’ में निपट लीं।
सच पूछिए तो हमें अचरज
हुआ कि दुर्गा शक्ति के निलंबन पर इतना ‘हंगामा क्यों बरपा’ – लोग इस तरह से पेश आ रहें थे जैसे दुनिया का आठवाँ अजूबा
हो गया हो। ‘अधिकारी तो निलंबित होते
ही रहते हैं – और इसने तो सांप्रदायिक अलगाव फैलाने का
दुस्साहस किया था।‘ यू.पी सरकार बहुत स्प्ष्ट है – प्रदेश में इस प्रकार की दादागिरी
नही चलेगी। उसने मस्जिद की दीवार गिराई और उन पर तुरंत कार्यवाई हुई – इससे फर्क नही
पड़ता कि वह किसकी जमीन है और निर्माण अवैध है या नही। हम सोच रहें हैं कि अभी तक सबों
के मन में धार्मिक भाव क्यों नही जागा है? भई सरकारी जमीन पर कब्जा करना आसान है – बस जो भी
पसंद आ जाए वहाँ अपने श्रद्धानुसार पूजास्थल बना दों।
जब आप दुर्गा शक्ति के
निलंबन पर हंगामा मचा रहे थे तो हम मन ही मन मुस्करा रहे थे – आपको कहीं शुरू से ही तो शक
नही था कि हम दुर्गा शक्ति के साथ नही हैं? बात दरअसल यह नही है – हम मुस्करा रहे थे
अपने भाग्य पर। एक बिहारी होने के नाते हमारे खून ने भी एक बार जोश मारा था और हम बैठ
गए थे यू.पी.एस.सी की परीक्षा देने के लिए – मान लिए खुदा न खास्ता हम चुना गए होते
तो हमारी ‘लाईफ की तो वाट’ लगी होती। गलती से कानून
का पालन करते करते किसी मंदिर, मस्जिद,
गुरुद्वारे की ‘दीवार गिर गई’ होती तो क्या
पता हमारे नाम की सुपारी भी निकल जाती। पर अपने भाग्य पर हम जितना खुश हैं उससे ज्यादा
दुखी इस बात पर हैं कि इस प्रकार की घटनाओं से कई प्रतिभाशाली लोगों का मनोबल टूटता
है – सरकार में जिस प्रकार की प्रतिभा आनी चाहिए वह कहीं न कहीं बाधित होती है – हमारा
भविष्य बाधित होता है।
चलते चलते माफीनामा पर भी एक दो पंक्ति हो
जाए वर्ना आप कहेंगे कि यह मुआ शब्द शीर्षक में क्या कर रहा है। आजकल हम देख रहें हैं
कि माफी माँगने का चलन जोरो पर है। जिस बात पर आपकी हमारी नौकरी चली जाए उस पर हमारे
राजनेता, चाहें वे किसी भी पार्टी के हों, माफी माफी खेलते हैं।
ऐसा लगता हैं आपसी साँठ-गाँठ हैं और हम मूर्ख कुछ समझ ही न पा रहें हैं। रक्षा मंत्री
के बयान पर माफी मँगवाओ; मुख्य मंत्री के कठन पर माफी मँगवाओ; पार्टी सेक्रेटरी के वक्तव्य पर माफी मँगवाओ। पर करों कुछ नही। पता नही ‘जवाबदेही’ हमारी राष्ट्रीय चेतना से कहाँ खो गई है। चलिए
इसे मिलकर ढूंढे।
~शानु
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