हम सिनेमा कला के
वर्षो से प्रशंसक रहे हैं। जाहिर सी बात हैं कि इस विषय पर हमारी अपनी राय भी है
जिसे हम कभी व्यक्त करते हैं और कभी अपने तक ही सीमित रखते हैं। रोहित शेट्टी की
फिल्मों के बारे में हमारा मानना है कि उन्हे गंभीरता से लेने की कोई भी आवश्यक्ता
नही है। सिनेमा के शौकिन होने के कारण हम यदा-कदा जब उनकी फिल्में देखने जाते भी
हैं तो दिलोदिमाग ताक पर रख कर – पता नहीं कब कोई सीन खुराफात कर हमारे सिनेमाबोध
पर बुरा असर छोड़ जाए। जब चेन्नई एक्सप्रेस आई तो हम उसे भी देखने गए – दिमाग तो घर
छोड़ गए पर दिल को साथ ले जाना पड़ा। आप पूछ सकते हैं – ऐसा अपवाद क्यों? हमें जानने वाले इसका
लिखित श्रेय शाहरुख खान को दे देंगे जिनके हम बचपन से ही फैन रहें हैं। और यह गलत
भी नहीं होगा – भई हमने चेन्नई एक्सप्रेस देखी भी तो दो बार है। अब आपको पता है कि
फिल्म के रिकॉर्डतोड़ू बिजनेस में हमारा कितना महत्वपूर्ण योगदान है। जब तक हम यह
बेफिजूल की बातें कर रहें हैं, कहीं आप इस बात से अधीर तो नहीं हो रहें कि यह ऐन मुद्दे
पर कब आएगा? धीरज रखिए – हमनें फितरत ही ऐसी पाई हैं कि किसी भी मुद्दे पर सीधे नहीं
पहुँच सकते। इसलिए यह विलंब – पर अब हम आपको ज्यादा देर नहीं लटकाएँगे।
हमने सोचा नही था कि
शाहरुख खान चेन्नई एक्सप्रेस में कोई पते की बात करेंगे। पर उन्होनें कर दी; और क्योंकि हम दिल साथ में लेकर गए थे – हम पर
बुरा असर भी हुआ। शाहरुख भाई ने कहा कि देश की आजादी के 66 वर्षों बाद भी अगर महिलाओं
को उनका अधिकार नही मिला हैं; अगर उन्हें अपनी जिंदगी के महत्वपूर्ण फैसले लेने का हक
नही मिला है तो उन्हें स्वतंत्रता दिवस नही मनाना चाहिए। भई, जब कुछ करने की आजादी ही
नही है तो भाड़ में जाए ऐसा स्वतंत्रता दिवस। बात में दम तो है (मेंस राइट्स एक्टीविस्ट
भाई लोग यह बात न मानें) पर फिर हमने सोचा कि अगर ऐसा ही है तो सिर्फ महिलाएँ ही क्यों? इस मानदंड पर तो अनेक भारतीय
स्वतंत्रता दिवस नही मना पाएँगे – आदिवासी, पिछ्ड़ी जातियाँ, अल्प्संख्यक, ‘मार्जिनल (हाशिए
पर खड़े)’ किसान इत्यादि। और इतनी बड़ी आबादी अगर आजादी मनाने से महरूम रहें तो पता चल जाना
चाहिए कि हमारी आजादी में कुछ ‘केमिकल लोचा’ तो है। इससे पहले की आप हमारी
लिखी पंक्तियों से हमारे राजनैतिक महत्वकांक्षाओं पर कुछ निष्कर्ष निकालें हम आगे बढ़ते
हैं।
हममें से अधिकतर इस ‘लोचे’ का बहुत ही सरल विश्लेषन करने का प्रयत्न करेंगे – सब सरकार
का दोष है। सही भी है – क्योंकि आम आदमी तो भोला है। आम आदमी तो चाहता है कि सभी स्वतंत्र
रहें। यहाँ तक तो ठीक है – पर उसके बाद लोग यह बताना भूल जाते हैं कि आम आदमी यह नहीं
चाहता कि सभी बराबर हों। और अगर हों भी तो ठीक है पर उसके नीचे हों। तो चाहें वह महिलाएँ
हों या फिर आदिवासी; पिछ्ड़ी जातियाँ हों या फिर निर्धन; जहाँ जो कमजोर रहा है वहाँ
उसको दबाया गया है। और ऐसा नहीं है कि जब और जहाँ आजादी ने इन दबे, कुचलों को सबल किया तो
उन्होनें आदर्श पथ अपनाया। सबल होते ही उन्होने औरों को दबाने का प्रयास किया। ऐसा
लगता है कि ‘औरों को उपर उठने न देना और दबाकर रखना’ ही
नियम है – किसी के लिए यह सदियों से चली आ रही रीति है और किसी के लिए प्रतिशोध। इन
सभी चीजों का दोष हम मढ़ देते हैं नेताओं पर और सरकार पर। भई उन्हें तो अपनी रोटी सेंकनी
हैं – और हम उन्हें उसके लिए मुफ्त का ईंधन दे रहें हैं तो वो क्यों इनकार करें? मुफ्त की चीजों को इनकार करने की फितरत हम भारतीयों में तो है ही नही।
ऐसा लगता है कि हमारे लिए स्वतंत्रता दिवस महज एक दिन बनकर रह गया है। आज हम अपनी कहानी
भूल गए हों पर जैसा कि हमारे भाई ने स्वतंत्रता दिवस के दिन अपने फेसबूक पर लिखा –
‘स्वतंत्र भारत की कहानी
हमारी कल्प्ना से भी ज्यादा असाधारण है। वह राष्ट्र जिसकी विफलता सबने सुनिश्चित मानी
थीं से लेकर वह राष्ट्र बनना जो आत्मविश्वास से परिपूर्ण है और विश्व मानचित्र में
अपनी पहचान छोड़ने के लिए आतुर है – हम वाकई काफी दूर आ गएँ हैं।... पर अभी भी काफी
समस्याएँ हैं।... ये सभी काफी जटिल समस्याएँ हैं जिनका निकट भविष्य में कोई निदान दिखाई
नही पड़ रहा है। भारत को अपनी नियति से एक नया संवाद (ट्रिस्ट विथ डेस्टनी) चाहिए और
इतिहास ने यह जिम्मा हमें दिया है। यह हमें न अपने पूर्वजों के लिए करना है न अपने
वंशजो के लिए – यह हमें अपनी मातृभूमि के लिए करना है, अपने लिए
करना है।’
हम अपनी आजादी के लिए खुद जिम्मेदार हैं –
यह तो सबको पता हैं। पर मजा तब है जब हम औरों की आजादी का भी जश्न मनाएँ फिर चाहे वह
किसी भी धर्म, जाति, तबके का क्यों न हो। बराबरी आजादी
का एक मूल अंग है – यह हमारी ‘विभाजक’ सोच
को परे रखने के साथ ही शुरू हो सकता है। और इस सोच को परे न कोई नेता कर सकता है और
न कोई सरकार – यह तो हमें खुद ही करना पड़ेगा। अब प्रश्न यह है कि क्या हम अगला स्वतंत्रता दिवस ‘चेन्नई एक्सप्रेस वे (तरीका)’ में मना पाएँगे – जब कम से
कम हमारे मन में किसी के लिए वैमनस्य और असमानता
का भाव न हो?
~शानु
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