लीजिए भई, होली आ गई। जो हमें जानते हैं
उन्हें पता है कि यह हमारा सबसे पसंदीदा त्योहार है। बचपन से ही इस त्योहार नें हमें
अपने आकर्षणपाश में बाँध रखा है और अभी तक हमारा इससे मोहभंग नही हुआ है। हमारे ज्यादातर
मुख्य त्योहार बुराई पर अच्छाई के जीत के प्रतीक हैं और होली कोई अपवाद नही है। जिन
बंधुओ के लिए किवदंतियाँ/ मिथक (बहुतों के लिए इतिहास भी) कमजोर कड़ी है उनके लिए बता
देते हैं कि होली का नाम ‘होलिका’ नामक राक्षसी से आया है। जब
हम होलिका दहन मनाते हैं तो हम सांकेतिक रूप में होलिका रूपी दुष्टता को जलाते हैं।
होली का त्योहार भक्त प्रह्लाद की भक्ति का; उसे बचाने के लिए होलिका के नाश का एवं उसके पिता
(और दुष्ट असुर राजा) हिरण्यकश्यप के अत्याचारी शासन के अंत का उत्सव है। पर यह उत्सव
रंगों के साथ क्यों खेला जाता है? भगवान राम जब अयोध्या वापस आए तब भी उत्सव मना पर वह प्रकाशोत्सव
था रंगोत्सव नही। तो फिर होली पर रंग क्यों?
एक धारणा है कि होली
में रंग का समागम भगवान कृष्ण ने किया – राधा एवं अन्य गोपिकाओं के साथ उनका रंगरास
होली के रूप में प्रसिद्ध हुआ। दरअसल कृष्ण अपने श्याम रंग से असंतुष्ट थे और इसी हताशा
में उन्होनें राधा (एवं अन्य गोपिकाओं) के मुख को रंगा और यहीं से होली में रंग प्रथा
की शुरुआत हुई। लोग इसे कृष्ण एवं राधा के प्यार का प्रतीक भी मानते हैं। कृष्ण भगवान
थे; महिमामयी थे; अगमजानी थे। उनका रंगो के प्रयोग के पीछे प्रयोजन भाँपे तो
होली के समारोह की सच्चाई निकलकर आती है – समानता। अपने रंग से परेशान भगवान ने सारे
जग को रंग दिया ताकि कहीं भेद न रहे। कृष्ण रंगो के इस त्योहार से हमें आज भी प्रेम
एवं समानता की सीख देते हैं।
यहाँ एक और बात गौर करनेवाली
है – अलग अलग कथाएँ एक साथ मिलकर एक पर्व को उसका पूर्ण स्वरूप दे रहीं हैं। जहाँ नाम
‘होलिका’ की कथा से आया वहीं रीति कृष्णयुग
से। आज जब कट्टरता अपना सर फिर उठा रही है तो यह समझना बहुत जरूरी है कि संस्कृति एवं
सभ्यता अचल नहीं है बल्कि परिवर्तनशील है जिसमें समय समय पर अनेक दृष्टिकोण समाहित
होते हैं। यही कारण है कि जब कोई भारतीय सभ्यता से बीच के 1000 साल निकालने की वकालत
करता है तो हम आहत होते हैं।
होली सिर्फ अच्छाई, प्रेम एवं समानता का त्योहार
नही है – यह त्योहार है उल्लास का; यह त्योहार है जीवन के सभी रंगो का; यह त्योहार है एक नए ऋतु के
आगमन का; यह त्योहार है उम्मीद का, एक नई शुरुआत का। जब हम होलिका दहन करते हैं तो हम अपने मन
के विकार को मारने का प्रण लेते हैं, अपनी पुरानी गलतियों को सुधारने का संकल्प लेते हैं। जब हम
दूसरों के घर जाकर उनसे मिलते हैं, उन्हें रंग लगाते हैं तो न सिर्फ संबंध प्रगाढ़ करते हैं बल्कि
अगर गिले शिकवें हों तो उन्हे भी माफ कर आगे बढ़ते हैं।
होली एक और तरीके से
नायाब है – आपने ध्यान दिया होगा कि इस पर्व का किसी अनुष्ठान से कोई लेना देना नही
है। न किसी भगवान को पूजना है; न किसी पुजारी को बुलाना; न ही कोई विशेष विधि है कि इसी प्रकार यह त्योहार
मनेगा। यह किसी भी प्रकार के आडंबर से मुक्त है। सच कहें तो होली का त्योहार आपको पूर्ण
रूप से स्वतंत्र करता है।
आप कह सकते हैं कि यहाँ
लिखी बहुत सारी बातें अब सिर्फ कहने के लिए रह गईं हैं और उनका वास्तव में निर्वाह
बहुत कम होता है। इसपर हमारा उत्तर सिर्फ यही है – आज और आगे की होली हमसे और हमारे
आचरण से भी परिभाषित होगी। हम इसे जैसा चाहे रूप दे सकते हैं – हमें होली का ‘इस लेख में प्रस्तुत रूप’ पसंद है और हम कोशिश करेंगे कि हम इसे इसी रूप में
प्रचारित करें। आप क्या करेंगे?
P.S: हमारे एक मित्र
दक्षिण कोरिया में कार्यरत हैं और उन्होने अपने फेसबुक पर होली के चित्र लगाएँ हैं।
देखकर अच्छा लगा कि उनके कुछ कोरियाई मित्र भी होली के जश्न में शामिल हुए। जहाँ हम
अपने देश में ही वैमनस्व का भाव बढ़ा रहें हैं वही होली का त्योहार विदेशी भूमि पर (सांकेतिक
तौर पर ही सही) सौहार्द बढ़ा रहा है।
~शानु
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