हाल ही की बात है – हम अपने घनिष्ठ मित्र के
विवाह समारोह में सम्मिलित होकर बेंगलुरु (हम अभी भी बैंगलोर कहना ही पसंद करते
हैं) से दिल्ली वापस लौटे थे। मध्यरात्रि में जब हमारा विमान दिल्ली की हवाईपट्टी
पर उतर गया तो हमने उन शक्स को फोन मिलाया जो हमें नियमित रूप से टैक्सी सेवा
प्रदान करते हैं। पता चला कि ड्राइवर से बात न हो पाने के कारण हमारी टैक्सी आ नही
पाएगी - अत: हमें अपना इंतजाम इस बार स्वयं ही
करना पड़ेगा। यह कोई मुश्किल कार्य नही है और एयरपोर्ट में काफी टैक्सी सेवाएँ
उपलब्ध हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि वे हमारे जेब पर कुछ ज्यादा ही भारी पड़ती हैं।
खैर मध्यरात्रि में और कोई चारा भी नही था सो हमने दिल्ली पुलिस द्वारा उपलब्ध
करायी गई टैक्सी सेवा ले ली।
अधिकतर महानगरों में रिक्शे और टैक्सी चालकों की
एक महत्वपूर्ण संख्या बिहारियों की होती है – दिल्ली उसमें कोई अपवाद नही है और
शायद यहाँ ये प्रतिशत कुछ ज्यादा ही होगा कम नही। हमारे द्वारा किए गए टैक्सी का
चालक भी बिहारी था।
‘कहाँ से हैं आप?’ हमने पूछा।
‘जी, बिहार से।’
‘वह तो पता चल गया। बिहार में कहाँ से?’
‘बाँका।’
‘हम पटना से हैं।’
हमारे साथ एक प्रॉबलम है – हमें बातें करने में
बहुत मजा आता है (इसका असर हमारी लेखनी में भी झलकता है – कुछ लोगों के अनुसार
(जोकि काफी हद तक सही है) हम बस लिखते चले जाते हैं)। यही कारण है कि हम जब भी
किसी रिक्शा, ऑटो या फिर टैक्सी
में बैठते हैं (और जब बैठकर सीधे सोने नही लगते) तो उनके चालकों से बाते करने लगते
हैं। यकीन मानिए उन वार्तालापों से बहुत कुछ सीखने, समझने को मिलता है।
चर्चा का विषय कुछ भी हो सकता है – मौसम, राजनीति, प्रगति, महत्वाकांक्षा इत्यादि। कभी कभी तो कुछ अपना जीवन तक खोल कर रख देते हैं। पर
जब हम बिहारियों से बात करते हैं तो हम उनके क्षेत्र में हुए प्रगति-कार्य के बारे
में विशेष रूप से चर्चा करते हैं। अत: हमने पूछ ही लिया – ‘रोड-उड बन गया आपके साईड में?’
‘रोड तो बेहतरीन हो गया
है – एकदम मक्खन की तरह।’
‘तो नीतीश काम कर रहें
हैं वहाँ पर।’
‘काम तो किए हैं – बिजली
भी सुधर गया है। पर एक काम बहुत खराब किए हैं।’
‘क्या?’
‘नीची जाति को बहुत शोखी
पर चढ़ा कर रखे हैं।’
‘ऐसा क्या?’
‘हाँ सब मुखिया-वुखिया तक
बन रहा है – बताईए जरा।’
‘इसमें क्या प्रॉब्लम है?’ हमने जानना चाहा।
‘आपको इसमें प्रॉब्लम नजर
नही आ रहा?’
‘नही। वे भी इंसान हैं और
सबके जितना उनका भी हक है मुखिया बनने का।’
‘अरे उनको शासन करने का
अनुभव नही है न। सब कुछ चौपट कर देंगे।’
हमने
समझाने का प्रयत्न किया - ‘अब मान लीजिए कि किसी को गाड़ी चलानी नही आती
और आप इसमें माहिर हो। आपके अनुसार उस व्यक्ति को गाड़ी नही चलानी चाहिए क्योंकि
शुरु में वह आप जितना अच्छा नही चला पाएगा। लेकिन हो सकता है कुछ समय बाद वह आपसे
भी अच्छा चलाने लगे।’
‘गाड़ी चलाने और शासन करने
में काफी अंतर है।’
‘अरे अभी तो बिहार सुधरना
शुरु किया है। अभी रोड आएँ हैं, बिजली आ
रही है, बच्चे स्कूल जाना शुरु कर रहें हैं और आप अब फिर से
जात पात घुसाने पर जोर दिए हुए हैं। अगर प्रगति होती है तो सभी खुशहाल होंगे सिर्फ
एक वर्ग नही। अभी तो आपको अच्छे अस्पताल माँगने चाहिए,
रोजगार माँगना चाहिए। जात पात में क्या रखा है।’
‘आप नही समझिएगा।’
‘तो इस बार आप नीतीश को
वोट नही देंगे?’
‘पता नही। हम तो उधर
जाएँगे जिधर सब जा रहे होंगे।’
यह प्रकरण यह
बताता है कि बिहारियों के एक वर्ग में असंतोष हैं कि कोई और वर्ग भी आगे बढ़ रहा
है। और यह असंतोष नया नही है बस अब कुछ ज्यादा प्रखर हुआ है। अभी करीब एक साल पहले
एक रिक्शेवाले ने भी इसी प्रकार की भावनाएँ व्यक्त की थी। वे जनाब दरभंगा के थे।
कहने लगे – ‘अब बताईए सर। हम (फलाँ फलाँ जात का) होकर रिक्शा चला रहें हैं और वहाँ
नीच लोग अफसर बन रहा है। इ सब काम तो उनलोगो के लिए बना है न, हमारे लिए नही। समय ही उल्टा आ गया है।‘
आप
कह सकते हैं कि ये लोग ज्यादा पढ़े लिखे नही होंगे और शायद इसीलिए ऐसी मानसिकता
होगी। पर पढ़े लिखे भी ज्यादा पीछे नही है – एक परिचित ने सीधे न बोलते हुए भी कह
ही दिया।
‘2004 से पहले का बिहार आज
के बिहार से ज्यादा अच्छा था।’
हमने
पूछा कैसे। ‘भ्रष्टाचार कम था और
सामाजिक संतुलन ज्यादा था।’
हमने
रोड, बिजली, स्कूल इत्यादि
में हुए परिवर्तन पर ध्यान आकृष्ट कराया तो बोले – ‘सामाजिक
संतुलन ज्यादा जरूरी है। अब यह बताओ कि 500 एकड़ में आई आई टी बनाकर यह क्या कर लेंगे?’ इस कथन के बाद हमारा जिरह करने तक का मन
न हुआ।
जात
पात को हम ढ़ंग से कभी समझ ही नही पाए हैं। यह किसी को इतना अंधा कैसे कर देता है
कि लोग अपने विकास की तिलांजलि देने को तैयार हो जाते हैं ताकि दूसरों का विकास न
हो सके। यह कैसे लोगों को बाध्य कर सकता है कि किससे मिलना है और किससे नही; किससे संबंध बनाने हैं और किससे नही; किसे वोट देना है और किसे नही।
शीर्षक
स्वदेस फिल्म के गाने से प्रेरित है:-
समझो सबसे पहले तो,
रंग होते अकेले तो
इंद्रधनुष बनता ही नही।
एक न हम हो पाए तो,
अन्याय से लड़ने को
होगी कोई जनता ही नही।
हम
कब समझेंगे कि सबकी प्रगति में ही हमारी भलाई है। हम दूसरों को वंचित रखकर एक
सीमित क्षेत्र में ही अपना वर्चस्व स्थापित कर सकते हैं। सच्चाई यह रहेगी कि हम बस
कुएँ के मेंढक रह जाएँगे। लेकिन अगर सब मिलकर आगे बढ़ते हैं तो शायद उस सीमित क्षेत्र
में हमारा वर्चस्व न हो पर फिर भी हम पहले से कहीं बेहतर होंगे।
P.S: ऐसा नही है कि बिहार में बदलाव नही हुआ है –
हमारे दो निकटतम मित्रों का अंतरजातीय विवाह हुआ है। और ऐसे अनेक उदाहरण मिल
जाएँगे आपको। पर शायद यह बदलाव जिस तेजी से होना चाहिए वैसा न हो पा रहा है।
सारे
ओपिनियन पोल बता रहें हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली
जद (यू) की खटिया खड़ी होगी – अगर ऐसा होता है तो इसके बहुत कारण होंगे और एक कारण यह
भी होगा कि हम जात को लेकर अपनी मानसिकता में आवश्यकतानुसार बदलाव लाने में अक्षम रहे।
~शानु
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