सच कहें तो हमें
लगता है कि ‘सोशल नेटवर्किंग’ मानव सभ्यता की अब तक की सबसे क्रांतिकारी ईजाद है। बस कुछ
सोचा ही कि वह फुर्र से हमारे जानने वालों को पता चल जाता है। सोच तो प्रकाश से भी
ज्यादा तेज हो सकती है - ‘सोशल नेटवर्क’ उसमें भी बूस्टर लगा रहा है। नए मानव समाज की रचना में
फेसबुक, ऑरकुट, ट्विटर इत्यादि अहम भूमिका निभा रहे हैं – और वैसे तो इनका योगदान नव युगीन
क्रांतियों में भी खूब रहा है पर इस लेख के लिए हम अपने आप को ‘सोशल नेटवर्क’ के मूल फायदे तक ही सीमित
रखेंगे – ‘विचारों की निर्विध्न अभिव्यक्ति’।
हमें ‘विचारों की निर्विध्न अभिव्यक्ति’ एक अद्भुत सोच लगती है। यह
आपको अकल्पनीय रूप से सबल बनाती है – इतना कि सरकारें भी इससे हिलने लगीं हैं
(सोचिए पुराणों के समय अगर सोशल नेटवर्क होता तो इंद्र का सिंहासन तो सदैव ही
हिलता रहता)। यही कारण है कि फेसबुक पर हम अपने मित्रों के ‘स्टेटस मैसेजस’ पढ़ने के लिए लालायित रहते हैं – पता नहीं किसकी सोच से
मानव जाति का भला हो जाए या फिर हमारे ही ज्ञान चक्षु खुल जाएँ।
अभी हाल फिलहाल में
ऐसे ही कुछ ‘स्टेटस मैसेजस’ ने हमारा ध्यान आकर्षित
किया – ये सभी किसी ना किसी तरह से ‘बेनेफिट’ यानि फायदे की परिभाषा से जुड़े हुए थे। एक मित्र फूड बिल
से व्यथित थे – उन्होने लिखा कि ‘क्योंकि फूड बिल हरेक व्यक्ति पर 5 किलो अनाज का प्रावधान देता है, क्या यह गरीबों को ज्यादा
बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित नही करता?...’ फूड बिल से काफी लोग विचलित हैं; उन्हे लगता है इससे हमारा
विकास बाधित होगा। हमें भी लगता है कि फूड बिल में काफी खामियाँ हैं पर यहाँ हम फूड बिल पर बात नही करेंगे। यहाँ हम इस सोच की बात
करेंगे जिससे हम विस्मित हुए:
1.
हमारे मित्र के अनुसार
भारतीय गरीब सिर्फ 5 किलो अनाज के लिए ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित
होगा। हाँ वह सोचेगा, भुखमरी से बेहतर है 5 किलो ज्यादा अनाज
ही मिल जाए – चलो जी बच्चे पैदा करते हैं। एक तो परिवार का नया सदस्य महीने में 5
किलो से कम ही खाएगा और दूसरा काम करने के लिए दो और हाथ हो जाएँगे।
2.
हमने हमारे मित्र को कभी यह
लिखते भी नही देखा कि डीजल पर सब्सिडी देने से मध्य वर्ग डीजल कार लेने के लिए
प्रोत्साहित होता है या फिर एल.पी.जी पर सब्सिडी देने से मध्य
वर्ग रसोई गैस के किफायती इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित नहीं होता – हालाँकि ये दोनो
ही परिस्थितियाँ पहली वाली से तुलनात्मक हैं।
यह तो वैसी ही बात हो
गई जैसी 2008 में बिहार में आए बाढ़ के समय हमसे हमारे एक सहपाठी ने कही थी – ‘तुम बिहारी तो चाहते ही होगे कि हर साल बाढ़ आए ताकि तुम्हे पैसे
मिल सकें’। आप समझ सकते हैं हम अपने
मित्र की सोच से इतने आहत क्यों हुए।
मोदीजी का बी.जे.पी में जब से राज्याभिषेक
हुआ है, फेसबुक पर उनके अनेक प्रशंसक लिखे जा रहें हैं – ‘जस्टिस
फॉर ऑल, अपीजमेंट टू नन’ (यानि न्याय सभी
के लिए पर तुष्टीकरण किसी का भी नही)। यह सोच भी काफी अच्छी है और फेसबुक पर इसके प्रखर प्रचारकों में से हमारे एक पुराने मित्र भी हैं।
उनकी सोच को देखकर हमें यकीन हुआ है कि हमारी शिक्षाप्रणाली कारगर है – नही तो एक समय
वह भी था जब यही मित्र यह बताते नही अघाते थे कि कैसे उनके शहर में वे रिक्शेवालों
आदि को तो पैसे भी नही देते क्योंकि वहाँ उनके खानदान की तूती बोलती है। अब जब वह सभी के लिए न्याय
की हिमायत कर रहें हैं तो जरूर उन गरीब रिक्शेवालों के न्याय
के बारे में भी सोच ही रहे होंगे।
कुछ समय पहले लोगो ने
यह लिखना शुरु कर दिया था कि हम सरकार को टैक्स नही देंगे – कारण वाजिब था। सरकार निकम्मी
है, भ्रष्ट है – हम अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई ऐसे जाया नही जाने देंगे। सरकार पहले
सर्विस दें फिर टैक्स के बारे में सोचे। यह एक क्रांतिकारी विषय हो सकता था – बस आड़े
आ गई उन लोगों की विश्वसनीयता जो इसका प्रसार कर रहे थे। हमने पाया कि इनमें से तो
कई ऐसे हैं जो खुद ही स्वेच्छा से भ्रष्टाचार का अंग बने हैं/ थे। अपने बेनेफिट के लिए कुछ
नकली प्रमाणपत्र लगाकर गरीब बन जाते थे चाहे छुट्टी अमरीका में मने तो कुछ दूसरों की
गाढ़ी मेहनत की कमाई पर हाथ मारते थे/ हैं। पर इन सभी (किसी न किसी समय स्वेच्छा से
भ्रष्ट रहे नागरिकों) के मन में एक ही लालसा थी कि भ्रष्ट और निकम्मी सरकार को टैक्स
नही देना है।
हमें लगता है कि जब अपने
उपर बात आती है तो बेनेफिट के मायने और उसे नापने के पैमाने दोनो बदल जाते हैं। हम
अपनी सोचते हैं और कहते हैं कि अरे हमें तो कुछ मिला ही नही और वह देखो दूसरे को घी-मक्खन
खिलाया जा रहा है। आज बहुत कुछ जो इस देश में हो रहा है वह प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक
संतुलन और बदलाव से जुड़ा है। सम्मिलित विकास (इंक्लुजिव
ग्रोथ) के लिए हरेक वर्ग को बेनेफिट तो देना ही होगा। जरूरत बेनेफिट के उपर व्यापक
बहस की है जिससे सामंजस्य लाया जा सके – ताकि बेनेफिट के मायने और उसे नापने के पैमाने अलग न हों।
~शानु
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