रविवार का दिन था। सूरज की किरणें कोहरे की मोटी दीवार को काट कर धरती पर कुछ देर पहले ही पहुँची थी। और लगभग उसी समय वह अपने पापा को खोजने निकली। ‘ माँ , माँ। पापा कहाँ हैँ ? ’ ‘ अभी अभी तो उठी है। अभी से पापा को तंग करना शुरु कर दे तू। ’ ‘ बताओ न पापा कहाँ हैं ? प्लीज। ’ ‘ अब जब तुझे घर में नही दिख रहे तो छत पर ही होंगे। ’ माँ ने प्यार से मुस्करा कर कहा। इतना सुनना था कि वह छत की ओर लपकी। अपने नन्हें पैरों से वह जितनी तेजी के साथ चढ़ सकती थी उतनी तेजी सीढ़ियाँ नाप ली। देखा कि छत पर पापा कुर्सी लगाए आराम से किताब पढ़ रहे थे। ‘ पापा यह गलत है। ’ वह नजदीक आती हुई बोली। पापा ने नजरे घुमाकर उसे देखा और मुस्कुराते हुए बोले – ‘ उठ गई मेरी बिटिया रानी। और क्या गलत है ?’ ‘ आज संडे है। आज आप पूरा दिन मेरे साथ रहोगे। ’ ‘ तो अभी कहाँ नही हूँ ? अभी भी तो तेरे साथ ही हूँ। ’ उन्होने उसे गोद में उठा लिया। ‘ अरे ऐसे नही। आज आप पूरा दिन मेरे साथ रहोगे – खेलोगे , घूमाने ले जाओगे और जो मैं कहूँगी करोगे। ’ ‘ अच्छा मेरी माँ। जैसी तेरी मर्जी। जरा नास्ता कर लें ? उसके बाद खेला...