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हम सोचते हैं (भाग 10) – पुलिस की छवि

शुरु करने के पहले ही आपको यह बताना चाहेंगे कि हम बचपन से ही पुलिस वालों के जबरदस्त फैन रहें हैं। हमारे सबसे पसंदीदा पुलिस अफसरों में अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, शत्रुघन सिन्हा, अक्षय कुमार, सलमान खान और अजय देवगन जैसे अभिनेताओं के द्वारा निभाए गए किरदार शामिल हैं। सिंघम से तो हम इतना प्रभावित हैं कि दोनो फिल्में कम से कम दस बार देखी होंगी। इन किरदारों से प्रभावित होना स्वाभाविक है – ये ईमानदार, कर्मठ और अच्छाई के प्रतीक के रूप में उभर कर आते हैं।

आप सोच रहे होंगे कि एक तो मुआ एक साल बाद कुछ लिख रहा है और वो भी पुलिस पर – कुछ और विषय नही मिला। लिखने के पीछे एक घटना रही। हम खाने के लिए बाहर निकले हुए थे – हमारी बेटर हॉफ’, हमारा भाई, हम और एक मित्र का परिवार। मित्र का बेटा अभी मात्र ढाई साल का हैं और अपनी उम्रानुसार शैतानियाँ करने से बाज नही आता। उसे बस में करने के लिए हमारी बीवी कभी कभी उसे पुलिस की झिड़की दे देती है – उस रोज भी कार पार्क करते समय ये प्रकरण चल रहा था कि साक्षात बाईक सवार दो पुलिसवाले दिख लिए। देखते ही मौजूद दोनो लेडिज ने उन पुलिसवालों से बच्चे को डराने का निवेदन किया। पुलिसवालों ने हँसते हुए कहा – मैडम, आपलोग बचपन से ही बिना कारण पुलिसवालों से डराते हो इसलिए ही तो हमारे देश में पुलिस की ऐसी खराब इमेज है। जवाब सुनकर स्वाभाविक रूप से हम सभी झेंप गए। लगा कि बहुत ऐसे पुलिसवाले होंगे जो पुलिस की बदनाम छवि से दुखी होंगे। मन में प्रश्न उठा कि क्या इस खराब छवि का कारण वाकई में हमलोग हैं?

विश्लेषन किया तो लगा कि इस छवि के पीछे ज्यादातर दोष पुलिस का ही है। हाल के ही घटनाक्रमों को उदाहरण के तौर पर उठाकर देखते हैं। गुजरात में हुए पटेल आंदोलन का हिंसक हो जाना निंदनीय था – पर शायद उससे भी शर्मनाक थी सीसीटीवी कैमरे में कैद वे तस्वीरें जिनमें गुजरात पुलिस के कर्मी सोसाइटियों में घुसकर आतंक मचा रहे थे। ऐसा लगा मानों रक्षक भक्षक बन गए हों। फिर न्यूज में सुना कि दिल्ली में एक युवक की पुलिस कस्टडी में मृत्यु हो गई – प्रत्यक्षदर्षियों ने बताया कि किस तरह पुलिस बेतरतीब तरीके से उस युवक को पीटते हुए ले गई। उसके बाद लखनऊ में प्रदर्शनकारियों की निर्मम पिटाई हो या फिर हाल ही में बेंगलुरु में सड़क के गड्ढे के कारण हुई दुर्घटना में एक युवती के मौत पर उसके पति पर आरोप दर्ज करने का वाकया, हर जगह पुलिस की छवि खराब ही दिखती नजर आती है।

अभी हाल ही में हम ऑटो से घर लौट रहे थे। एक चौराहे पर एक पुलिसवाले ने हाथ दिया, ऑटोवाले से पूछा कि कहाँ जा रहे हो, हमें साईड में घिसकने का निर्देश दिया और आराम से ऑटो में बैठ गया – न कोई विनती, न निवेदन; बस ऐसा लग रहा था मानो उसका हक हो। हमारे मन में विरोध करने की लालसा जगी पर फिर वही पुलिस की छवि सामने आ गई। हमारा दिन भी उतना अच्छा नही चल रहा था अतैव हम शांत रहे। वह पुलिसवाला तो मुफ्त की सवारी पा गया, पर अपनी हरकत से अपने महकमें पर एक और दाग लगा गया।

आप सर्वे करा लीजिए – पुलिस को अच्छा मानने वाले कम पाएँगे। अधिकतर लोग पुलिस से त्रस्त हैं - ऑटोवालों का एक शोषण तो आपने देख लिया, पर आए दिन राह चलते आपको पुलिसिया मनमानियों के अनेक उदाहरण मिल जाएँगे – यहाँ तक की यह भी कहा जाता रहा है कि एक एफ.आई.आर दर्ज कराने के भी पैसे लगते हैं। जब ऐसा होता है तो एक व्यक्ति या फिर संस्था लोगो का विश्वास खो देती है (भारत में पुलिस के चक्कर में क्यों पड़ना?’ डॉयलोग आम है) और इसके साथ शुरु होता है पतन का सफर।

ऐसा ही नही है कि हमेशा सिर्फ पुलिस का ही दोष रहता है – बहुत समय दोष हमारा भी है। हम अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं – अगर हमने गलत कार्य किया है या फिर नियम तोड़ा हैं तो हम उम्मीद करते हैं कि पुलिसवाले पैसे लेकर मामला रफा दफा करे। ट्रैफिक नियम तोड़ने पर, ट्रैफिक पुलिस को पैसे का लोभ न जाने हममें से कितनों ने दिया होगा। छोटे मोटे भ्रष्टाचार को जब हम मान्यता दे देते हैं तो उसे बड़ा बनने में समय नही लगता - भ्रष्ट आचार, वैध आचार बन जाता है। इस व्यवस्था से उपजा तंत्र, अनेक संसाधन/ साधन के उपभोग को अपना अधिकार समझने लगता है; जनता का शोषण सामान्य मानता है और स्वयं को सर्वोपरि। आज का पुलिसिया तंत्र इसी रोग से पीड़ित बुझाता है।

पुलिस के कुछ सफलता के किस्से भी सुनने को मिलते हैं पर आम जिंदगी में पुलिस की छवि इतनी धूमिल हो चुकी है कि वे किस्से बस अपवाद मात्र बनकर रह जाते हैं। इसीलिए मुझे लगता है कि आज एक अनवरत प्रयास की जरूरत है – न सिर्फ पुलिस की छवि सुधारने की पर इस तंत्र को कार्यसक्षम बनाने की। इसमें पुलिस के आला अधिकारियों, प्रशासन और सरकारों की सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता है। जिन पुलिस रिफॉर्म्स की बात हम सुनते आए हैं उनको अमली जामा पहनाने की आवश्यकता है। और सबसे जरूरी है पुलिसिया तंत्र को इस बात का एहसास दिलाने की कि वे जनता की सेवा के लिए हैं, उनकी रक्षा के लिए हैं।

चलते चलते: पुलिस की वर्दी धारण करनेवाला भी हमारे ही बीच का है। हमारी पुलिस एक तरह से हमारे समाज का ही दर्पण है। हम चाहे कितना भी पल्ला झाड़े, सच्चाई यही है कि हममें भी खोट है जिसकी वजह से हमारे सारे संस्थान सड़ रहे हैं। अगर भविष्य बदलना है तो हमें भी बदलना होगा।


सभी पुलिसवालों को ट्रेनिंग की जरूरत है – शारीरिक रूप से फिट रहने की; हथियारों के उपयोग की; वैज्ञानिक तरीकों के इस्तेमाल की; इंटर-एजेंसी सहयोग के सिद्धांतो की। पर मुझे लगता है कि इन सबसे ज्यादा जरूरी ट्रेनिंग होगी  सामजिक शिष्टाचार की – आप अपराधियों से कठोर अवश्य हों पर आम जनता जिसकी सेवा करने के लिए आप कार्यरत हैं उनसे तो ढ़ंग से बात करें। 

Comments

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